
घर वालों को बिना बताए राजकुमार गुप्ता जब दिल्ली से मुंबई के लिए निकले तो उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि राजधानी एक्सप्रेस का टिकट खरीद सकें? यहां टेलीविजन उनका पहला सहारा बना और आहिस्ता आहिस्ता आज वह उस मुकाम पर हैं जहां उनकी दो फिल्मों के रीमेक साउथ में बन चुके हैं। फिल्म ‘रेड 2’ की सफलता पर इसके निर्देशक राजकुमार गुप्ता से ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल की एक खास मुलाकात।

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अजय देवगन और राजकुमार गुप्ता
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
‘रेड 2’ को बनाने की बात पहली फिल्म की शूटिंग के समय ही तय हो गई थी, या उसकी सफलता के बाद?
फिल्म ‘रेड’ बिल्कुल नए विचार पर बनी फिल्म है। किसी भी फिल्म को बनाने में रिस्क तो होता ही है, हम भी बतौर एक फिल्मकार चिंतितरहते हैं कि पता नहीं ये कहानी लोगों को पसंद पसंद आएगी कि नहीं। लेकिन, फिल्म लोगों को खूब पसंद आई। और, हमने बात वहीं छोड़ दी। एक-दो साल बाद हमें उस दुनिया में फिर से कुछ खोजने का ख्याल आया। ख्याल आया कि क्या उस किरदार को आगे लेकर जाया जा सकता है। सीक्वल बनाना एक दोधारी तलवार है, उसकी तुलना हमेशा पिछली फिल्म से तो होगी ही।

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राजकुमार गुप्ता
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
और, इस बार जो कहानी है उसकी प्रेरणा कोई एक किरदार न होकर अलग अलग घटनाएं रहीं?
हमने जब इस विचार पर काम किया तो ये पता चला कि एक आईआरएस जरूरी नहीं कि हर बार छापा मारकर ही अपना काम करे। अमेरिका का एक बहुत बड़ा माफिया हुआ है, अल कपोन। लेकिन, उसे किसी अपराध की बजाय कर अपवंचना के एक मामले में पकड़ा गया। तो यही एक विचार था कि बड़े नामी अपराधी को कर चोरी के मामले में कैसे पकड़ा जा सकता है।

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अजय देवगन और राजकुमार गुप्ता
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
अजय देवगन मौजूदा समय के सबसे हिट फ्रेंचाइजी कलाकार हैं। करीब आधा दर्जन तो उनकी फ्रेंचाइजी फिल्में अब भी निर्माणाधीन हैं, ऐसे में कहानियां कहां से लाते हैं आप?
अखबारों से वाकई कहानियां मिलती हैं। मेरे बहुत सारे जो दोस्त हैं। हजारी बाग में भी मैंने बचपन से बहुत सारे बहुत लोगों को देखा है, जो सुबह उठते ही अखबार पढ़ते हैं। मेरे बहुत सारे दोस्त हैं जो अलग अलग कंपटीशन की तैयारी करते रहे। मैंने भी बैंकिंग की तैयारी की थी क्योंकि मेरे दिवंगत पिता बैंकर थे। तो आसपास के लोगों और दोस्तों से कहानियां आती रहती हैं।

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राजकुमार गुप्ता
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
और, सिनेमा आपके जेहन में सबसे पहले कैसे आया?
मैंने बचपन में तो कभी नहीं सोचा कि मैं फिल्ममेकर बनूंगा। फिल्में भी तब जो दूरदर्शन पर आती थीं, वही देखा करता था। यहां तक दिल्ली स्नातक की पढ़ाई करने आया तब भी नहीं सोचा था। हां, ये जरूर है कि मुझे लिखना अच्छा लगता था और ये लिखना ही मुझे मुंबई ले आया। मैंने स्नातक की परीक्षा के बाद मुंबई का ट्रेन टिकट लिया। इतने पैसे थे नहीं कि राजधानी एक्सप्रेस से आ पाता तो जो ट्रेन मिली, जिसमें जगह मिली, उसी से आ गया।